पृष्ठ:भाषा का प्रश्न.pdf/५७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

भाषा का प्रश्न

विवाद मिट जायगा। पंडितजी की यह क्रिया है तो प्रशंसनीय पर उर्दू के विधाता मौलाना (अब डाक्टर ) अब्दुल हक की दृष्टि में वह बेतरह चुभ गई है। कारण प्रत्यक्ष है। उर्दू राज-भाषा या रानी है। वह उन लोगों की मुंह-लगी है जो कल भारत के भाग्य-विधाता या मुल्क के बादशाह थे। हिंदी की भाँति वह बाँदी या गुलामों की जवान नहीं; हिंद के किताबी शाहंशाहों की जवान है। हिंदी के साथ उसकी निभ नहीं सकती। वह हिंदी और हिंद को भापाओं को मिटाकर बढ़ना चाहती है, कुछ सौत के रूप में पालना नहीं। कदाचित् यही कारण है कि उर्दू के कर्णधारों को पंडितजी की दक्षिणी नीति खली है और मौलाना हक को उन्हें झुठलाना पड़ा है। यदि उक्त मौलाना और उनकी मंडली के लोग अपने बलबूते पर पंडित जवाहरलाल को झुठाते या 'वातिल' बनाते तो कोई बात न थी। हम इसे उनकी आदत समझ लेते और 'शाने खुदा' कहकर अपने को समझा-बुझाकर किसी तरह संतुष्ट कर लेते। पर आश्चर्य की बात तो यह है कि उक्त मौलाना ने सर जार्ज ग्रियर्सन जैसे भाषा-मनीषी की दुहाई दी है और उन्हीं के आधार पर पंडितजी को ललकार भी दिया है। आप फरमाते और किस तपाक से फरमाते हैं- "पंडितजी की हुब्बवतन में शक करनेवाला काफिर । लेकिन इस बहस को महज़ 'इल्मी' समझकर हम इतना अर्ज करने की इजाजत चाहते हैं कि 'हिंदुस्तान की तहकीकात लसानी' (Linguistic Survey of India) के जखीम मुजल्दात में