पृष्ठ:भाषा का प्रश्न.pdf/७०

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राष्ट्रभाषा का नाम हिंदीवालों को गासा द तासी का उतना पता नहीं जितना उर्दूवालों को। उर्दुवाले उनको अपना हितू समझते हैं और उनकी बातों को प्रायः प्रमाण के रूप में उद्धृत करते रहते हैं। हिंदी-उर्दू के विवाद के प्रसंग में एक जगह वे कहते हैं (खुतबात गासा दंतासी १६३३ । ) "यह दर असल बड़ी भारी गलती होगी अगर उर्दू और हिंदी को दो मुख्तलिफ जवाने तसव्वुर किया जाय ।" . स्पष्ट है कि गासा' द तासी भी भाषा की दृष्टि से हिंदी और उर्दू को एक ही मानते हैं और उन्हें अलग अलग मान लेना भूल ही नहीं यल्कि भारी भूल समझते हैं। फिर भी उर्दू के हिमायती यह दावा करते और हमसे उत्तर माँगते हैं कि हम भाषा के विचार से हिंदी और उर्दू को एक ही क्यों समझते हैं। देखिए, एक सज्जन का कहना है- "हम को जो कुछ शिकायत है वह यह है कि हिंदी और हिंदोस्तानी को हममानी और मुरादिफ क्यों ठहराया गया है।" (अलीगढ़ मैगजीन, जुलाई १९३७ । ) उक्त सज्जन की राय है ( देखिए अलीगढ़ मैगजीन, अक्टूबर सन् १९३३ पृ० २७ । ) - "आजकल जिसको 'हिंदी' कहते हैं वह पूरब की एक सूबःबार बोली है, जिसके लिये कोशिश की जा रही है कि यह पूरे मुल्क की बोली हो जाय। मगर हकीकत में इसका ऐसा नाम जिसकी मानूयत के दायरह में सारा हिंदोस्तान दाखिल हो जाय, खुद विदेशी है फिर भी इसके लिये ऐसा नाम एतिचार करना. इसलिये मुना-