पृष्ठ:भाषा का प्रश्न.pdf/८१

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भाषा का प्रश्न ७६ हिंदी को सिटाकर हिंदोस्तानी को राष्ट्र मापा की गद्दी पर विठाना चाहते हैं और हिंदोस्तानी की आड़ में उर्दू के प्रचार का स्वप्न देखते हैं। 'हिंदोस्तानी' का नाम राष्ट्र-भाषा के लिये चल निकला। विद्वानों ने काव्यगत उसके दो भेद मान लिए-हिंदी और उर्दू । इस प्रकार हिंदी हिंदोस्तानी के भीतर बनी रही। उसको मिटाने के लिये अब यह चाल चली जा रही है कि प्राचीन ग्रंथों में जहाँ कहीं हिंदोस्तानी शब्द दिखाई देता है वहाँ उसके सामने कोष्ट में उर्दू लिख दिया जाता है।. प्रमाण के लिये गासी इ तानी का यह कथन लीजिए--- "इस वक्त इस कालेज में ( केनिंग कालेज, लखनऊ) तीन जमाअते हैं--(१) 'हिंदोस्तानी (उर्दू) की जमाअत, (२) अँग- रेजी की जमाअत, (३) आला जमाअत । - हिंदोस्तानी की जमा- अत में आँगरेजी नहीं पढ़ाई जाती बल्कि हिंदोस्तान की इल्मी जवानों की तालीम दी जाती है। इस जमाअत में एक सौ सैंतालीस तुल्यः हैं। उनमें सात फारसी सीखते हैं, तीस संस्कृत और सत्तर, अरवी की तहसील करते हैं। (वही, पृष्ठ ६०६) प्रत्यक्ष है कि प्रकृत प्रसंग में कहीं 'उर्दू' का निशान भी नहीं है फिर भी उर्दू की भोली-भाली जनता को धोखा देने के लिये हिंदोस्तानी के सामने 'उदू' लिख दिया गया है जिससे यह सिद्ध हो जाय कि वस्तुतः उर्दू ही राष्ट्र-भाषा है। इस प्रसंग को अधिक बहाना व्यर्थ है । 'अजुमन तरक्की. उर्दू ( औरंगाबाद ) और अंब"अंजुमन तरक्की उर्दू' (हिंद)

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