पृष्ठ:भाषा का प्रश्न.pdf/८२

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राष्ट्रभाषा का नाम की किसी भी नवीन प्रकाशित पुस्तक या रिसाले को हाथ में ले लीजिए, आप देखेंगे कि हिंदोस्तानी शब्द के साथ कैसा अना- , चार हो रहा है। अस्तु, हमें 'हिदास्तानी' की सृग-मरीचिका में फंसकर अपने राष्ट्र-जीवन को नष्ट नहीं करना है, प्रत्युत उसी संज्ञा पर आरूढ़ रहना है जिसे हमने मिल-जुलकर बना लिया है। हमारी वह परंपरागत संज्ञा हिंदी ही है। हिंदी का नाम हमने मुसलमानों से सीखा है। अरब हमें सदा से हिंदी कहते आ रहे हैं। कोई कारण नहीं कि हम 'हिंदी' जैसे प्रिय, प्राचीन और सारगर्भित सुबोध शब्द को छोड़कर एक अस्थिर, संदिग्ध और एकांगी शब्द को केवल इसलिये ग्रहण करें कि वह उन लोगों को खल जो हमारे होते हुए भी सदैव हमसे अलग रहना ही अपना, धर्म समभाते हैं।