हिंदुस्तानी 'उर्दू-डे' के सिंहासन से सिंहनाद करते हुए जब 'हिंदुस्तानी' के सरपरस्त सर तेजबहादुर सम ने हिंदुस्तानी को 'धोखे की टट्टी' घोपित कर दिया, तब उसकी आड़ में और अधिक दिन तक हिंदी का शिकार करना उचित नहीं कहा जा सकता। हम हिंदियों में इतनी ताब कहाँ कि हम कांग्रेस अथवा अँगरेजी सरकार से यह प्रार्थना करें कि वह हमें भी इस विशाल विश्व अथवा भारतवर्ष में कुछ फलने-फूलने का अवसर दे, और अपनी बदगुमानी के कारण प्रमावश हमें पथ-भ्रष्ट करने की कृपा व्यर्थ ही न करे। हाँ, हिंदी के विद्यार्थी होने के नाते हम अपनी उदार सरकार से स्पष्ट कह देना चाहते हैं कि कभी उसके जीवन में वह दिन भी था कि उसने स्वतः सत्य के अनुरोध अथवा शासन के सुभीते के लिये उसी हिंदी, हिंदुस्तानी अथवा नागरी को चुना था, जिसे आज भी हम समूचे भारत में राष्ट्र भाषा तथा राष्ट्र-लिपि के रूप में पाते हैं और जिसके विषय में सर जार्ज ग्रियर्सन जैसे गंभीर भाषाविद् का विचार है कि वह समस्त उत्तर भारत की बोलचाल की व्यापक भाषा है। भाग्य अथवा दुर्भाग्य-वश आज उसी हिंदी के बारे में सैयद सुलेमान साहब' सरीखे मुसलिम संस्कृति के मर्मज्ञ की यह राय है- १- अलीगढ़ मेगजीन, जुलाई सन् १६३७ ई०, ०३ ॥