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भाषा का प्रश्न
 


बंधुओं को सुझा सकते हैं कि भारत सदा से एकता में अनेकता का निर्वाह एवं अनेकता में एकता का विधान करता आ रहा हैं। 'एकोऽहम् बहु स्याम' की भावना और नेह नानास्ति किंचन' के निष्कप में विदेशियों को विरोध दिखाई दे सकता है पर भार तीयों के लिये इसमें तनिक भी दोष लक्षित नहीं होता। यही उसका भजन तथा आत्मिक भोजन है।

समन्वय तथा सामंजस्य के आधार पर भारतवासियों ने भाषा के प्रन्न को भी निहायत आसानी से सुलझा लिया था। संस्कृत को प्रकृति तथा अन्यों को विकृति' मान कर एक को अनेक कर दिया और फिर अनेक में से एक को प्रधानता दे उसे चलित राष्ट्रभाषा के रूप में अपना लिया। इस तरह भाषा का अन्न स्वतः हल हो गया। विनाश किसी का नहीं, पर विकास सब का हुआ।

भारत में इसलाम के जम जाने तथा उसके बाद फिरंगियों के प्रवल हो जाने के कारण 'भाषा' की प्रवृत्तियों में जो परिवर्तन। हुए उनके निदर्शन तथा परितः परिशीलन के लिये उसकी परंपरा से भली भाँति परिचित हो जाना अनिवार्य है। अतएब यहाँ पर थोड़ा 'भाषा' की परंपरा पर विचार किया जायगा और यह स्पष्ट दिखा देने की कुंछ चेष्टा की जायगी कि किस प्रकार उसी पद्धति पर चलने से आज भी भाषा का प्रश्न स्वतः सिद्ध हो जाता है। उसके समाधान के लिये किसी आंदोलन की आवश्यकता नहीं पड़ती। राष्ट्रभाषा के उत्कर्ष में सभी देशभाषाओं की उन्नति स्वयं हो जाती है।।