पृष्ठ:भाषा का प्रश्न.pdf/९८

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वली की 'हिंदी तुझवत के बिन तवजः खुलना है इसका मुश्किल । हलके में तुझ जुलफ के जो जीव जाके अटका ।। हरगिज बली' किसी किन शाकी तेरा न होता । गर तुझमें ए टीले होता न तार हट का ॥ -~-कुल्लियात नं० २५. तसरती. वली आदि 'दक्विनी' के प्राचीन कवियों के अध्ययन से कुछ यह भी स्पष्ट होता है कि आरंभ तो प्रायः वे हिंदी शब्दों से करते हैं, पर विवशता के कारण आगे चलकर अहिंदी 'बोली' को अपना लेते हैं। जब व्यवहृत बोलचाल से. काम नहीं चलता तब अर्जित 'बोलों से काम लेते हैं। विचार करने के लिये बली के ही कुछ पदों को लीजिए--- तुन मुख की झलक देख गई जोत चंद्र से। तुझ मुख प अर्क देख गई अाब गहर से ॥ X अँखियों से हुया पीच जुदा जब सेंती मेरी। जाते . हैं मेरे अश्क गया पीव जिधर से। जी चल विचल हुआ है चंचल तेरी चाल देख । दिल जा पड़ा खलल में तेरे मुख का खाल देख ।। प्रसंग को बढ़ाने से कुछ लाभ नहीं दिखाई देता। सच्चे समझदारों के लिये इतना निर्देश यथेष्ट है। अब कुछ वली के. भीतरी भावों पर भी विचार कीजिए और देखिए कि उनमें कितनी हिदियत है ! उनका एक पढ़ है-