पृष्ठ:भाषा का प्रश्न.pdf/९९

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भाषा का प्रश्न ९४ मत गुस्से के शोले से जलते को जलाती जा। टुक मेहर के पानी से यह आम चुनाती जा ।। तुझ चाल की कीमत से नहीं दिल है मेरा वाकित । ऐ नाजभरी चंचल टुक भाव बताती इस रैन अँधेरी में मत भूल पर तिल । टुक पाँव के वियों को प्राबाज़ नुनांतो ना! मुम दिल के कबूतर को पकड़ा है तरी लट ने ! वह काम धरम का है टुक, इसको छुड़ाती जा ॥ तुझ मुख की परस्तिश में गई उन नेरी लारी। ऐ बुत को पूजनहारी इस बुत को युजातो . जा॥ तुझ इश्क में जल जलकर सब तन को किया काजल । यह रोशनी अफ़ज़ा है अँखियन को लगाती जा !! तुझ इश्क में दिल चलकर जोगी की लिया व्रत । एकबार अरे मोहन छाती से लगाती जा ॥ तुझ घर की तरफ़ सुंदर आता है 'बली' दावम । सुश्ताक है दर्शन का टुक दरस दिखाती. जा.॥ --ऋल्लियात नं० ४४ कहने की आवश्यकता नहीं कि वली की नायिका सर्वथा हिंदी हैं। फारसी. या उर्दूवालों की तरह 'अमरद' नहीं। यह तो आलंबन की बात हुई। आश्रच भी नायिका दिखाई दे जाती है। टुक देखिए तो सही तेरे आने की बाट ऊपर बिछाया हूँ अँखाँ अपनो। तू बेगी आ कि तुझ बिन सुझको यह घरबार करना क्यो ।