पृष्ठ:भूगोल.djvu/११५

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११४ भूगोल [वर्ष १६ मारा गया तथा हिम्मत बहादुर ने भाग कर अपनी जान १८५७ ई. के विप्लव में रतनसिंह ने अपने भरसक बचाई । इस युद्ध में खुमान सिंह ने बड़ी बहादुरी दिखलाई अँग्रेजों की सहायता की। मिस्टर कार्ने जो उस समय और अच्छा नाम युद्ध-क्षेत्र में पैदा किया। महोबा के कलक्टर थे, उन्होंने रतनसिंह से सहायता विजय विक्रमाजीत (विजयबहादुर १७८२-१८२६)- माँगी । रतनसिंह ने बड़ी प्रसन्नता के साथ मदद दी और कुछ समय पश्चात् खुमानसिंह और उसके भाई गुमानसिंह सौ आदमी और एक बंदूक हमीरपुर लाएड साहब की से खटपट हो गई । १७८२ ई० में खुमानसिंह पनरोरी के सहायता को भेजी। जब विप्लवी रानी ने जैतपुर पर स्थान पर लड़ाई में बुरी तरह से घायल हुआ और उसकी कब्जा किया तो राजा ने शीघ्र ही मोर्चा लिया और परास्त मृत्यु हो गई। उसका पुत्र विजय विक्रमाजीत गद्दी पर बैठा करके रानी को निकाल बाहर किया । किन्तु उससे भी बाँदा के सरदार अर्जुनसिंह से बराबर १८५७ में तौतिया टोपी चरखारी पर आ धमका लड़ाई होती रही और अंत काल विक्रमाजीत को चरखारी और मार्च के महीने में राजा को बेवश होकर किले में छोड़ कर भाग जाना पड़ा। धुसकर जान बचानी पड़ी। किले के अन्दर बहुत से जान १७८६ ई. में विजय विक्रमाजीत ने अलीबहादुर बचाकर भागे अंग्रेज थे उनमें मिस्टर काने महोबा के और हिम्मत बहादुर के साथ बुन्देलखण्ड पर आक्रमण कलक्टर भी थे। किया। जिसके फल स्वरूप एक सनद द्वारा चरखारी का राजा को विप्लवकारियों ने ताँतिया की बात मानने दुर्ग और चार लाख मालगुजारी की भूमि उसे प्राप्त हुई । पर बाध्य किया। उन लोगों ने तीन लाख रुपया १८०३ ई० में अंग्रेज पहले पहल बुन्देलखण्ड में आये माँगा। कुघर जैसिंह ताँतिया के पास रहने की माँग की और बुन्देला सरदारों में सर्व-प्रथम विक्रमाजीत ने अंग्रेजों और सारे छिपे हुए अगरेजों को चाहा। राजा ने और से सन्धि कर ली। इसके फलस्वरूप १८०४ ई० में विक्रमा सभी बातें मान ली किन्तु शरण आए हुए अगरेजों को जीत को उसके राज्य की सनद अंग्रेज सरकार द्वारा मिली। निकालने से इन्कार किया। ताँतिया ने न माना और घेरा एक दूसरी सनद सन् १९११ ई० में दी गई। डाले रहा, किन्तु इसी समय झाँसी के घेरे की खबर आई सनद द्वारा इकरारनामे में दिये हुए ११ जिले, परगने, जिससे ताँतिया को विवश होकर वहाँ जाना पड़ा। इसी बीच गाँव और किले राजा को मिले और अंग्रेज सरकार ने वादा मिस्टर कार्ने को एक प्रसिद्ध बुन्देला सर्दार के भेष में राजा किया कि जब तक राजा और उसके उत्तराधिकारी अंग्रेज ने पना भेज दिया। सरकार के ताबेदार रहेंगे तब तक उनका राज्य स्वरक्षित इस भलाई के बदले में राजा को २०,००० रु. की रक्खा जावेगा और किसी प्रकार की हानि न होने भूमि, खिलश्रत और ११ तोपों की सलामी का अधिकार, पावेगी। राजा ने मौंधा का किला बनवाया, चरखारी में इनाम में मिला। मेहमान घर व झील बनवाई। राजा भाषा का बड़ा प्रेमी जैसिंह देव १८६०-८०-- था। उसने स्वयं कविता लिखी है। जब वह झाँसी के १८६० में राजा मरे और उनके नाबालिग पुत्र जैसिंह- किले में निर्वासित था तो उसने विक्रमवीर दोहावली देव गद्दी पर बैठे । रानी बख़्त कुवर जैसिंह देव की माँ के पुस्तक लिखी थी। हाथ राज्य-भार सौंपा गया किन्तु जब रानी से तथा मौलवी रतनसिंह १८२०-६१- सिराजहुसेन और आना साहब गोरे से झगड़ा सन् १८२६ ई. में विक्रम को मृत्यु हो गई और तो कर्नल थामसन को राज-काज सौंपा गया १८६६ में रतनसिंह गद्दी पर बैठा। महाराज रतनसिंह ने १८५३ ई. करनल थामसन वापस बुला लिये गए और पाना साहब में अन्ना साहब गोरे को अपना दीवान बनाया । अब तक दीवान के हाथ बागडोर दे दी गई। साल भर बाद ही कभी भी राज्य में ऐसे चतुर मनुष्य की नियुक्ति नहीं हुई दीवान साहब सुरलोक सिधारे उनके बाद ताँतिया साहब यो । नियुक्ति के कुछ ही समय बाद राज्य में बहुत गोरे उनके सुपुत्र ने बागडोर अपने हाथ में ली। इन्होंने बहुत सुधार किये गये। १८५६ में एक स्कूल खोला गया जहाँ से सुधार किये । १८६८ में हाई स्कूल की इमारत, अस्पताल, अंग्रेज़ी, फारसी, संस्कृत भाषाएँ पढ़ाई जाती थीं । सड़कें और जैसागर ताल बनवाए गये । गया