पृष्ठ:भूतनाथ.djvu/९७

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- " hoc तनाथ भूत० । तब मै रोशनी करके देखू और वह ताली निकालू? लोही । नही नही, रोशनी करने का मौका नहीं है, जो कुछ तुम्हे करना है अन्धेरे ही में करो और जो कुछ निकालना है उसे टटोल कर निकालो, मैं तुम्हें फिर भी विश्वास दिलाती हू कि तुम्हारी सब चीजें इसमे ज्यों की त्यो रक्खी है। भूत० । खैर कोई चिन्ता नही, मैं सव काम अन्धेरे ही में कर सकूँगा, अगर मेरी चीजें ज्यो की त्यों रक्खी हैं और इधर उधर नही की गई तो मुझे रोशनी की कुछ भी जरूरत नही है । अच्छा अब वह असल काम हो जाना चाहिए अर्थात् मुझे मालूम हो जाना चाहिए कि मैं किसका कैदी लौंडी० । ह। मैं बताती हू ( कुछ सोच कर ) मगर मैं फिर सोचती हू कि यह काम मेरे लिए विलकुल ही समुचित होगा, मालिक का नाम तुम्हे वता देना । सन्देह मालिक के साथ दुश्मनो करना है । भूत० । यह सोचना तुम्हारी बुद्धिमानी नहीं है बल्कि वेवकूफी है, हां यदि मैं स्वतन्त्र होता और मैदान में तुमसे मुलाकात हुई होती तो तुम्हारा यह सोचना कुछ उचित भी हो सकता था। तुम देख रही हो कि में किम अवस्था में हू और मेरो तकदीर में क्या लिखा हुआ है। फिर, मैं इस समय कर ही क्या सकता है ? सोचो तो लौंडी० ० । हाँ एक तौर पर तुम्हारा कहना भी ठीक ही है, अच्छा में वताए देती हूं कि तुम्हारा दुश्मन कोन है और तुम्हें किसने कैद किया । भूत० । हा वस में इतना ही सुना चाहता हूँ । लौंडी० । तुम्हें उसो ने कैद किया है जिसके पति को तुमने वेइमानी और नमकहरामी करके वडी निर्दयता के साथ वेकसूर मारा है । दयाराम को मार कर तुम इस दुनिया में सुखी नही हो सके और न भविष्य में तुम्हारे सुनी होने को प्राशा है। भूत० । ( चौंक कर ताज्जुब के साथ ) हैं | क्या दयाराम को दोनो