पृष्ठ:भूषणग्रंथावली.djvu/२२७

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[ १३६ ] करें, तीनि' वेर खाती सो तो तीनि वेर खाती हैं। भूपन' सिथिल अंग भूपन सिथिल अंग विजन" डुलाती तेवः विजन डुलाती हैं। भूपन भनत सिवराज वीर तेरे त्रास नगन जड़ाती ते वै नगन जड़ाती हैं ॥८॥ उतरि पलंग ते न दियो है धरा पै पग तेज सगबग निसि दिन चली जाती हैं । अति अकुलाती मुरझाती ना छिपाती गात वात न सोहाती बोले अति अनखाती हैं । भूपन भनत सिंह साहि के सपूत सिवा तेरी धाक सुने अरि नारी चिल्लाती हैं। कोऊ करें घाती को रोती पीटि छाती घरै तीनि वेर खाती ते वै वीनि वेर खाती हैं ।। ९॥ अंदर ते निकसी न मंदिर को देख्यो द्वार विन रथ पथ ते उघारे पाँव जाती हैं। हवा हू न लागती ते हवा ते बिहाल भई लाखन की भीरि में सन्हारती न छाती हैं । भूपन भनत सिव १ तोन नर्तदा। २ देरी के तीन फल : ३ जेवरों ने। ४ भूखों से। ५ पंखा। ६ ते मन। ७ कळेली। ८ मारो मारी फिरती हैं। जेवरों में नगोने नड़वातो यो । १० नंगी जाड़ा खा रही हैं ।