पृष्ठ:भूषणग्रंथावली.djvu/२२८

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[ १३७ ] राज तेरी धाक सुनि हयादारी' चीर फारि मन झुझलाती हैं। ऐसी परी नरम* हरम बादसाहन की नासपाती खाती ते बना- सपाती खाती हैं ॥१०॥ अतर गुलाब रस चोवा घनसार सब सहज सुवास की सुरति विसराती हैं। पल भरि पलँग ते भूमि न धरति पाएँ भूली खान पान फिरें वन विललाती हैं ॥ भूपन भनत सिवराज तेरी धाक सुनि दारा हार बार न सम्हार अकुलाती हैं। ऐसी परी नरम हरम बादसाहन की नासपाती खाती ते वनासपाती खाती हैं॥ ११ ॥ __साँधे को अधार किसमिस जिनको अहार चारि को सो अंक लंक चंद सरमाती हैं। ऐसी अरि नारी सिवराज बीर तेरे त्रास पायन मैं छाले परे कंद मूल खाती है । ग्रीपम तपनि एती तपती न सुनि कान कंज कैसी कली विनु पानी मुरझाती हैं । तोरि तोरि आछे से पिछौरा सो निचोरि मुख कहें “अब कहाँ पानी मुकतों मैं पाती हैं ?" ॥ १२ ॥ साहि सिरताज औ सिपाहिन मैं पातसाह अचल सुसिंधु केसे जिनके सुभाव हैं। भूपन भनत परी शस्त्र रन सिवा धाक

  • कमजोर । बुन्देलखंडी शब्द।

१ च्या (शम ) रखनेवाला । २ वनस्पति । ३ कई नुगंधित वस्तुओं से बनाया हुआ द्रव पदार्थ । ४ सुगंध । ५ अच्छे से अर्थात् बढ़िया । - - -