पृष्ठ:भूषणग्रंथावली.djvu/२४५

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[ १५४ ] ज्ञान बोध है। मानस में हंस वंस रहत हैं तेरे जस हंस में रहत करि मानस विसोध हैं ॥ भूषन भनत भौंसिला भुवाल भूमि तेरी करतूति रही अदभुत रस ओध है। पानि में जहाज रहे लाज के जहाज महाराज सिवराज तेरे पानिप पयोध है ॥५०॥ वेद राखे विदित पुरान राखे सारयुत रामनाम राख्यो अति रसना सुघर में। हिंदुन की चोटी रोटी राखी है सिपाहिन की काँधे में जनेउ राख्यो माला राखी गर मैं । सीडि राखे मुगल मरोडि राखे पातसाह वैरी पीसि राखे वरदान राख्यो कर मैं । राजन की हद राखी तेग वल सिवराज देव राखे देवल स्वधर्म राख्यो घर मैं ॥ ५१ ॥ ___ सपत नगेस चारौं ककुभ' गजेस कोल कच्छप दिनेस घरे धरनि अखंड को । पापी घालै धरम सुपथ चालै मारतंड करतार प्रन पालै प्रानिन के चंड को ।। भूपन भनत सदा सरता सिवाजी गाजी म्लेच्छन को मारै करि कीरति घमंड को । जग- काज वारे निहचिंत करि बारे सब भोर देत आसिप तिहारे भुनदंड को ॥५२॥ १ पृथ्वो के हाथो मर्याद दिग्गज।