पृष्ठ:भूषणग्रंथावली.djvu/२७

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[ १८ ] विशेप भूपणजी की हुई होगी। पर भूपण महाराज का चित्त तो बढ़ा हुआ था। उन्हें वह खातिर कुछ अँची नहीं और वे असंतुष्ट रहे। यों तो भूपणजी वहीं कुछ कहे विना न रहते (जैसा कि कमाऊँ में किया था), पर मतिरामजी की हानि के विचार से कुछ न वोले होंगे और महेवा या पन्ना होकर छत्रसाल से मिलते हुए घर लौटे होंगे। इसी मौके पर "और राव राजा एक मन मैं न ल्याऊँ अब साहू को सराहाँ कै सराहों छत्रसाल को" वाला छंद (छ. सा० दशक नं० १०) बना होगा। यह बात ध्यान में रखने योग्य है कि सन् १७०७ ईसवी में जाजऊ का समर जीतने पर औरंगजेब के पुत्र वहादुर शाह बादशाह ने राव बुद्ध को "राव राजा"की उपाधि दी थी, सो भूपणजी के उपर्युक्त कवित्त में "राव राजा" शब्दों से राव बुद्ध का साफ़ इशारा है, एवं कहने को ये शब्द किसी राव या राजा पर घटित किए जा सकते हैं। राव बुद्ध सन १७०६ ई. के लगभग गद्दी पर बैठे थे। ___ जान पड़ता है कि मतिराम जी अपना सम्मान बढ़ाने के लिये ही भूपण जैसे राजसम्मानित एवं जगत् प्रसिद्ध कवि को अपनी सरकार में हठ करके ले गए होंगे; नहीं तो प्रायः ७१ वर्ष की अवस्था में उस समय की तीन चार सौ मील की दुर्गम यात्रा करके भूपण जी यूँदी जाने का श्रम कदापि न उठाते। संभव है कि राव बुद्ध ही कारणवश इस ओर आए हों और तव भेंट हुई हो। यह इस बात का भी प्रमाण है कि मतिराम अवश्य भूषण जी के भाई थे। राव बुद्ध हिंदी के रसिक थे, क्योंकि मतिराम-