पृष्ठ:भूषणग्रंथावली.djvu/६३

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[ ५४ ] अलंकारों की इस नामावली में बहुत से ऐसे हैं जिनमें मुख्य अलंकार का वर्णन हुआ है, परंतु उसके किसी विभाग का नहीं हुआ। ऐसा ग्रंथ के संक्षिप्त बनने के कारण किया गया है। कुछ अलंकार ऐसे हैं जिनके न वर्णित होने का कोई कारण नहीं है । यही कहा जा सकता है कि वे ऐसे विदित अथवा आवश्यक नहीं हैं जिनके वर्णन करने को कवि बाध्य हो । - तद्रूप रूपक का भी वर्णन भूपणजी ने नहीं किया है। बिहारी ने भी सैकड़ों रूपक लिखने पर एक भी तनृप रूपक नहीं लिखा । वास्तव में तनृप लपक एक निपिद्ध प्रकार का रूपक है । रूपक का मुख्य प्रयोजन है उसी रूप का होना ! फिर कोई वस्तु किसी द्वितीय की पूर्ण प्रकारेण अनुरूप तभी हो सकती है जब उन दोनों वस्तुओं में कुछ भी भेद न हो। अतः मुख्यशः अभेद रूपक ही शुद्ध रूपक है। जब दो पदार्थों में विभिन्नता विद्यमान है, जैसा कि तदृप रूपक में होता है, तब रूपक श्रेष्ट कैसे हो सकता है ? - भूपण महाराज के भ्रम विकल्प एवं सामान्य के उदाहरण अशुद्ध हो गये हैं। इनके भ्रम में गड़बड़ हो ही गया है। विकल्प में संदेह ही संदेह रहना चाहिए, निश्चय न होना चाहिए । (शि० भू० छं. २४९) मोरंग जाहु कि जाहु कुमाऊँ सिरीनगरै कि कवित्त बनाये। मपन गाय फिरौ महि में वनिहै चित चाह शिवाहि रिमाये ।।