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भ्रमरगीत-सार
१६
नाहिंन मीत बियोगबस परे अनवउगे[४] अलि बावरे!
भुखमरि जाय चरै नहिं तिनुका सिंह को यहै स्वभाव रे।
स्रवन सुधा-मुरली के पोषे जोग-जहर न खवाव, रे!
ऊधो हमहि सीख का दैहो? हरि बिनु अनत न ठाँव रे!
सूरदास कहा लै कीजै थाही नदिया नाव, रे!॥३२॥
स्याममुख देखे ही परतीति।
जो तुम कोटि जतन करि सिखवत जोग ध्यान की रीति॥
नाहिंन कछू सयान ज्ञान में यह हम कैसे मानैं।
कहौ कहा कहिए या नभ को कैसे उर में आनैं॥
यह मन एक, एक वह मूरति, भृंगकीट[५] सम माने।
सूर सपथ दै बूझत ऊधो यह ब्रज लोग सयाने॥३३॥