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भ्रमरगीत-सार
२२
 


राग सारंग
फिरि फिरि कहा सिखावत बात?

प्रातकाल उठि देखत, ऊधो, घर घर माखन खात॥
जाकी बात कहत हौ हमसों सो है हमसों दूरि।
ह्याँ है निकट जसोदानँदन प्रान-सजीवनमूरि॥
बालक संग लये दधि चोरत खात खवावत ड़ोलत।
सूर सीस सुनि चौंकत नावहिं अब काहे न मुख बोलत?॥४८॥


राग धनाश्री
अपने सगुन गोपालै, माई! यहि बिधि काहे देत?

ऊधो की ये निरगुन बातैं मीठी कैसे लेत।
धर्म, अधर्म कामना सुनावत सुख औ मुक्ति समेत॥
काकी भूख गई मनलाडू सो देखहु चित चेत।
सूर स्याम तजि को भुस फटकै[१] मधुप तिहारे हेत? ॥४९॥


राग सारंग
हमको हरि की कथा सुनाव।

अपनी ज्ञानकथा हो, ऊधो! मथुरा ही लै गाव
नागरि नारि भले बूझैंगी अपने वचन सुभाव।
पा लागों, इन बातनि, रे अलि! उनहीं जाय रिझाव॥
सुनि, प्रियसखा स्यामसन्दर के जो पै जिय सति भाव।
हरिमुख अति आरत इन नयननि बारक बहुरि दिखाव॥
जो कोउ कोटि जतन करै, मधुकर, बिरहिनि और सुहाव?
सूरदास मीन को जल बिनु नाहिंन और उपाव॥५०॥


  1. भुस फटकै=भूसी फटकारै अर्थात् भूसी में से कुछ सार निकालने का प्रयत्न करे।