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भ्रमरगीत-सार
 


राग कान्हरो
अलि हो! कैसे कहौं हरि के रूप-रसहि?

मेरे तन में भेद बहुत बिधि रसना न जानै नयन की दसहि॥
जिन देखे ते आहिं बचन बिनु, जिन्हैं बचन दरसन न तिसहि।
बिन बानी भरि उमगि प्रेमजल सुमिरि वा सगुन-जसहि॥
चार बार पछितात यहै मन कहा करै जो बिधि न बसहि[१]
सूरदास अँगन की यह गति को समुझावै पाछपद पसुहि[२]?[३]*॥५१॥


राग सारंग
हमारे हरि हारिल[४] की लकरी।

मन बच क्रम नँदनँदन सों उर यह दृढ़ करि पकरी॥
जागत सोवत, सपने सौंतुख कान्ह कान्ह जक[५] री।
सुनतहि जोग लगत ऐसो अलि! ज्यों करुई ककरी॥
सोई ब्याधि हमैं लै आए देखी सुनी न करी।
यह तौ सूर तिन्हैं लै दीजै जिनके मन चकरी[६]॥५२॥


फिरि फिरि कहा सिखावत मौन?

दुसह बचन अलि यों लागत उर ज्यों जारे पर लौन॥
सिंगी, भस्म, त्वचामृग, मुद्रा, अरु अवरोधन पौन।
हम अबला अहीर, सठ मधुकर! घर बन जानै कौन॥


  1. न बसहि=वश में नहीं है।
  2. पाछपद पसुहि=पश्चात्पद पशु को
  3. इसका पाठ 'या छपद पसुहि' जान पड़ता है। अर्थ होगा 'इस
    पशु (मूर्ख) छपद (षट्‌पद, भ्रमर) को कौन समझाए'।
  4. हारिल=एक पक्षी जो प्रायः चंगुल में कोई लकड़ी या तिनका लिए रहता है।
  5. जक=रट, धुन।
  6. चकरी=चकई। चकई नामक खिलौने की तरह चंचल या घूमता हुआ।