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भ्रमरगीत-सार
२६
 


राग सारंग
बिलग जनि मानौ हमरी बात।

डरपति बचन कठोर कहति, मति बिनु पति यों उठि जात[१]
जो कोउ कहत जरे अपने[२] कछु फिरि पाछे पछितात।
जो प्रसाद पावत तुम ऊधो कृस्न नाम लै खात॥
मन जु तिहारो हरिचरनन तर अचल रहत दिनरात।
'सूर स्याम तें जोग अधिक' केहि कहि आवत यह बात?॥५९॥


अपनी सी[३] कठिन करत मन निसिदिन।

कहि कहि कथा, मधुप, समुझावति तदपि न रहत नंदनंदन बिन॥
बरजत श्रवन सँदेस, नयन जल, मुख बतियाँ कछु और चलावत।
बहुत भाँति चित धरत निठुरता सब तजि और यहै जिय आवत॥
कोटि स्वर्ग सम सुख अनुमानत हरि-समीप-समता नहिं पावत।
थकित सिंधु-नौका के खग ज्यों फिरि फिरि फेरि वहै गुन गावत॥
जे बासना न बिदरत अंतर[४] तेइ तेइ अधिक अनूअर[५] दाहत।
सूरदास परिहरि न सकत तन बारक बहुरि मिल्यो है चाहत॥६०॥


राग धनाश्री
रहु रे, मधुकर! मधुमतवारे।

कहा करौं निर्गुन लै कै हौं जीवहु कान्ह हमारे॥
लोटत नीच परागपंक में पचत, न आपु सम्हारे।
बारम्बार सरक[६] मदिरा की अपरस[७] कहा उघारे॥


  1. पति उठि जात=मर्यादा जाती रहती है।
  2. जरे अपने=अपना जी जलने पर।
  3. अपनी सी=अपने भरसक।
  4. जे बासना...अन्तर=जिस वासना के कारण हृदय नहीं फटता है।
  5. अनूअर=अनुत्तर, लगातार।
  6. सरक=मद्यपात्र।
  7. अपरस=विरस, रसहीन