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भ्रमरगीत-सार
 

तुम जानत हमहूँ वैसी हैं जैसे कुसुम तिहारे।
घरी पहर सबको बिलमावत जेते आवत कारे॥
सुन्दरस्याम कमलदल-लोचन जसुमति-नँद-दुलारे।
सूर स्याम को सर्बस अर्प्यो अब कापै हम लेहिं उधारे[१]॥६१॥


राग बिलावल
काहे को रोंकत मारग सूधो?

सुनहु, मधुप! निर्गुन-कंटक तें राजपंथ क्यों रूँधो[२]?
कै तुम सिखै पठाए कुब्जा, कै कहीं स्यामघन जू धौं।
बेद पुरान सुमृति सब ढ़ूँढ़ौ जुवतिन जोग कहूँ धौं?
ताको कहा परेखो[३] कीजै जानत छाछ न दूधो।
सूर मूर अक्रूर गए लै ब्याज निबेरत[४] ऊधो॥६२॥


राग मलार
बातन सब कोऊ समुझावै।

जेहि बिधि मिलन मिलैं वै माधव सो बिधि कोउ न वतावै॥
जद्यपि जतन अनेक रचीं पचि और अनत बिरमावै।
तद्यपि हठी हमारे नयना और न देखे भावै॥
बासर-निसा प्रानबल्लभ तजि रसना और न गावै।
सूरदास प्रभु प्रेमहिं लगि करि कहिए जो कहि आवै॥६३॥


राग सारंग
निर्गुन कौन देस को बासी?

मधुकर! हँसि समुझाय, सौंह दै बूझति साँच, न हाँसी॥


  1. उधारे = उधार में, उधार, कर्ज़।
  2. रूँधो रोकते हो, छेकते हो।
  3. परेखो=विश्वास।
  4. निबेरत=निबटाते हैं, वसूल करते हैं।