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भ्रमरगीत-सार
 


राग धनाश्री
कहति कहा ऊधो सों बौरी[१]

जाको सुनत रहे हरि के ढिग स्यामसखा यह सो री!
कहा कहत री! मैं पत्यात[२] री नहीँ सुनी कहनावत।
हमको जोग सिखावन आयो, यह तेरे मन आवत?
करनी भली भलेई जानै, कपट कुटिल की खानि।
हरि को सखा नहीँ री माई! यह मन निसचय जानि॥
कहाँ रास-रस कहाँ जोग-जप? इतनो अँतर भाखत।
सूर सबै तुम कत भइँ बौरी याकी पति[३] जो राखत॥६७॥


राग रामकली
ऐसेई जन दूत कहावत।

मोको एक अचंभो आवत यामेँ ये कह पावत?
बचन कठोर कहत, कहि दाहत, अपनी महत[४] गँवावत।
ऐसी परकृति[५] परति छाँह की जुवतिन ज्ञान बुझावत॥
आपुन निलज रहत नखसिख लौं एते पर पुनि गावत।
सूर करत परसँसा अपनी, हारेहु जीति कहावत॥६८॥


राग धनाश्री
प्रकृति जोई जाके अंग परी।

स्वान-पूँछ कोटिक जो लागै सूधि न काहु करी॥
जैसे काग भच्छ नहिं छाँड़ै जनमत जौन घरी।


  1. बौरी=पगली।
  2. पत्यात=विश्वास करती हूँ।
  3. पति राखत=प्रतीति या विश्वास रखती है।
  4. महत=महत्ता, महिमा।
  5. परिकृति=प्रतिकृति वा प्रकृति अर्थात् संसर्ग या छाया का ऐसा प्रभाव पड़ता है।