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भ्रमरगीत-सार
 

ऊपर मृदु भीतर तें कुलिस सम, देखत के प्रति भोरे।
जोइ जोई आवत वा मथुरा तें एक डार के से तोरे॥
यह, सखि, मैं पहले कहि राखी असित न अपने होंहीं।
सूर कोटि जौ माथो दीजै चलत आपनी गौं हीं॥८०॥


राग मलार
मधुकर रह्यो जोग लौं नातो।

कतहिं बकत बेकाम काज बिनु, होय न ह्याँ तें हातो[१]
जब मिलि मिलि मधुपान कियो हो तब तू कहि धौं कहाँ तो।
तू आयो निर्गुन उपदेसन सो नहिं हमैं सुहातो॥
काँचे गुन[२] लै तनु ज्यों बेधौ; लै बारिज को ताँतो।
मेरे जान गह्यो चाहत हौ फेरि कै भैगल[३] मातो॥
यह लै देहु सूर के प्रभु को आयो जोग जहाँ तो।
जब चहिहैं तब माँगि पठै हैं जो कोउ आवत-जातो॥८१॥


राग नट
मोहन माँग्यो अपनो रूप।

या ब्रज बसत अँचै तुम बैठी, ता बिनु तहाँ निरूप[४]
मेरो मन, मेरो, अलि! लोचन लै जो गए धुपधूप[५]


  1. हातो=दूर, अलग।
  2. गुन=तागा।
  3. भैगल=मस्त हाथी।
  4. मोहन......निरूप=सखी राधिका से कहती है कि तुम मोहन का रूप अँचै (पी) गई हो अर्थात् अपने ध्यान में ले बैठी हो जिससे वे बेचारे वहाँ निराकार हो गए हैं। इससे उद्धव को वही रूप माँगने के लिए उन्होंने भेजा है। उद्धव के बार बार निराकार की चर्चा करने पर यह उक्ति है।
  5. धुपधूप=दगदगा, धुला हुआ, साफ, चोखा।