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भ्रमरगीत-सार
३६
 

हमसों बदलो लेन उठि धाए मनो धारि कर सूप॥
अपनो काज सँवारि सूर, सुनु, हमहिं बताव त कूप।
लेवा-देइ बराबर में है, कौन रंक को भूप ॥८२॥


हरि सों भलो सो पति सीता को।

बन बन खोजत फिरे बंधु-सँग, कियो सिंधु बीता को[१]
रावन मार्‌यो, लंका जारी, मुख देख्यो भीता[२] को।
दूत हाथ उन्हैं लिखि न पठायो निगम-ज्ञान गीता को॥
अब धौं कहा परेखो कीजै कुबजा के मीता को।
जैसे चढ़त सबै सुधि भूली, ज्यों पीता चीता को[३]?
कीन्हीं कृपा जोग लिखि पठयो, निरखु पत्र री! ताको।
सूरदास प्रेम कह जानै लोभी नवनीता को॥८३॥


राग सोरठ

निरमोहिया सों प्रीति कीन्हीं काहे न दुख होय?
कपट करि करि प्रीति कपटी लै गयो मन गोय[४]
काल-मुख तें काढ़ि आनी बहुरि दीन्हीं ढोय।
मेरे जिय की सोइ जानै जाहि बीती होय॥
सोच, आँखि मँजीठ कीन्हीं निपट काँची पोय[५]
सूर गोपी मधुप आगे दरकि[६] दीन्हों रोय॥८४॥


  1. बीता को=बीते भर का।
  2. भीता=डरी हुई।
  3. पीता चीता को=किस पीनेवाले ने चेता अर्थात् किसी ने नहीं।
  4. गोय लै गयो=चुरा ले गया।
  5. सोच, आँखि मजीठ...काँची पोय=आँखें भी मजीठ की तरह लाल (धूएँ आदि से) की, कच्चा पकाया भी। काँची पोय=कच्ची रोटी बनाकर अर्थात् प्रेम का कच्चा व्यवहार करके।
  6. दरकि=फूट फूटकर।