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भ्रमरगीत-सार
३८
 

जबै कृपा जदुनाथ कि हमपै रही सुरुचि जो प्रीति प्रतिपाली।
माँगत कुसुम देखि द्रुम ऊँचे, गोद पकरि लेते गहि डाली॥
हम ऐसी उनके केतिक हैं अंग-प्रसंग सुनहु री, आली!
सूरदास प्रभु प्रीति पुरातन सुमिरि सुमिरि राधा-उर साली॥८७॥


राग गौरी
ऊधो! क्यों राखौं ये नैन?

सुमिरि सुमिरि गुन अधिक तपत हैं सुनत तिहारों बैन॥
हैं जो मनोहर बदनचंद के सादर कुमुद चकोर।
परम-तृषारत सजल स्यामघन के जो चातक मोर॥
मधुप, मराल चरनपंकज के, गति-बिलास-जल मीन।
चक्रबाक, मनिदुति दिनकर के, मृग मुरली आधीन॥
सकल लोक सूनो लागतु है बिन देखे वा रूप।
सूरदास प्रभु नँदनंदन के नखसिख अंग अनूप॥८८॥


राग मलार
सँदेसनि मधुबन-कूप भरे।

जो कोउ पथिक गए हैं ह्याँ तें फिरि नहिं अवन करे॥
कै वै स्याम सिखाय समोधे[१] कै वै बीच मरे?
अपने नहिं पठवत नँदनंदन हमरेउ फेरि धरे॥
मसि खूँटी, कागर जल भीजे, सर दव[२] लागि जरे।
पाती लिखें कहो क्यों करि जो पलक-कपाट अरे?॥८९॥


राग नट

नँदनंदन मोहन सों मधुकर! है काहे की प्रीति?
जौ कीजै तौ है जल, रवि औ जलधर की सी रीति॥


  1. समोधे=समझा बुझा दिया।
  2. दव=दावाग्नि, आग।