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भ्रमरगीत-सार
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बीती जाहि पै सोई जानै कठिन है प्रेम-पास को परिबो।
जब तें बिछुरे कमलनयन, सखि, रहत न नयन नीर को गरिबो॥
सीतल चंद अगिनि सम लागत कहिए धीर कौन बिधि धरिबो।
सूरदास प्रभु तुम्हरे दरस बिनु सब झूठो जतननि को करिबो॥९९॥


राग जैतश्री
अति मलीन बृषभानुकुमारी।

हरि-स्रमजल अंतर-तनु भीजे ता लालच न धुआवति सारी।
अधोमुख रहति उरध नहिं चितवति ज्यों गथ[१] हारे थकित जुआरी।
छूटे चिहुर[२], बदन कुम्हिलाने, ज्यों नलिनी हिमकर की मारी॥
हरि-सँदेस सुनि सहज मृतक भईं, इक बिरहिनि दूजे अलि जारी।
सूर स्याम बिनु यों जीवति हैं ब्रजबनिता सब स्यामदुलारी॥१००॥


राग मलार
ऊधो! तुम हौ अति बड़भागी।

अपरस[३] रहत सनेहतगा तें, नाहिंन मन अनुरागी॥
पुरइनि-पात रहत जल-भीतर ता रस देह न दागी[४]
ज्यों जल माँह तेल की गागरि बूँद न ताके लागी॥
प्रीति-नदी में पावँ न बोस्यो, दृष्टि न रूप परागी।
सूरदास अबला हम भोरी गुर चींटी ज्यों पागी॥१०१॥


ऊधो! यह मन और न होय।

पहिले ही चढ़ि रह्यो स्याम-रँग छुटत न देख्यो धोय॥


  1. गथ=पूँजी।
  2. चिहुर=चिकुर, बाल।
  3. अपरस=अनासक्त, दूर।
  4. देह न दागी=देह में दाग नहीं लगाया।