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भ्रमरगीत-सार
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राग सारंग
ऊधो! जोग बिसरि जनि जाहु।

बाँधहु गाँठि कहूँ जनि छूटै फिरि पाछे पछिताहु॥
ऐसी बस्तु अनूपम मधुकर मरम न जानै और।
ब्रजबासिन के नाहिं काम की, तुम्हरे ही है ठौर॥
जो हरि हित करि हमको पठयो सो हम तुमको दीन्हीं।
सूरदास नरियर ज्यों विष को करै बंदना कीन्हीं॥१२०॥


ऊधो! प्रीति न मरन बिचारै।

प्रीति पतंग जरै पावक परि, जरत अंग नहिं टारै॥
प्रीति परेवा उड़त गगन चढ़ि गिरत न आप सम्हारै।
प्रीति मधुप केतकी-कुसुम बसि कंटक आपु प्रहारै॥
प्रीति जानु जैसे पय पानी जानि अपनपो जारै।
प्रीति कुरंग नादरस, लुब्धक तानि तानि सर मारै॥
प्रीति जान जननी सुत-कारन को न अपनपो[१] हारै?
सूर स्याम सोँ प्रीति गोपिन की कहु कैसे निरुवारै॥१२१॥


राग रामकली
ऊधो! जाहु तुम्हैं हम जाने।

स्याम तुम्हैं ह्याँ नाहिं पठाए तुम हौ बीच भुलाने॥
ब्रजवासिन सौँ जोग कहत हौ, बातहु कहन न जाने।
बड़ लागै न विवेक तुम्हारो ऐसे नए अयाने॥
हमसोँ कही लई सो सहिकै जिय गुनि लेहु अपाने॥
कहँ अबला कहँ दसा दिगंबर सँमुख करौ, पहिचाने॥


  1. अपनपो=अपनापन, आत्मभाव।