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पृष्ठ:भ्रमरगीत-सार.djvu/१४३

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भ्रमरगीत-सार
६२
 


मधुकर! जौ तुम हितू हमारे।

तौ या भजन-सुधानिधि में जनि डारौ जोग-जल खारे॥
सुनु सठ रीति, सुरभि पयदायक[] क्यों न लेत हल फारे[]?
जो भयभीत होत रजु[] देखत क्यों बढ़वत अहि कारे॥
निज कृत बूझि, बिना दसनन हति तजत धाम नहिं हारे[]
सो बल अछत निसा पंकज में दल-कपाट नहिं टारे॥
रे अलि, चपल मोदरस-लंपट! कतहि बकत बिन काज?
सूर स्याम-छबि क्यों बिसरत है नखसिख अंग बिराज?॥१५४॥


राग सोरठ
मधुकर! कौन गाँव की रीति?

ब्रजजुवतिन को जोग-कथा तुम कहत सबै बिपरीति॥
जा सिर फूल फुलेल मेलिकै हरि-कर ग्रंथैं छोरी।
ता सिर भसम, मसान पै सेवन, जटा करत आघोरी॥
रतनजटित ताटंक बिराजत अरु कमलन की जोति।
तिन स्रवनन पहिरावत मुद्रा तोहिं दया नहिं होति॥
बेसरि नाक, कंठ मनिमाला, मुखनि सार असवास।
तिन मुख सिंगी कहौ बजावन, भोजन आक, पलास॥
जा तन को मृगमद घसि चंदन सूछम[] पट पहिराए।
ता तन को रचि चीर पुरातन दै ब्रजनाथ पठाए॥


  1. पयदायक=दूध देने वाली।
  2. हल फारे=हल और फाल, अर्थात् गाय हल से क्यों नहीं जुतती?
  3. रजु=रज्जु, रस्सी।
  4. निज कृत......हारे=अपने कर्म को देख, कि तू बिना काते छत्ता छोड़कर नहीं जाता।
  5. सूछम=महीन।