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भ्रमरगीत-सार
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राग सारंग
मधुकर! भली सुमति मति खोई।

हाँसी होन लगी या ब्रज में जोगै राखौ गोई[१]
आतमराम लखावत डोलत घटघट व्यापक जोई।
चापे[२] काँख फिरत निर्गुन को, ह्याँ गाहक नहिं कोई॥
प्रेम-बिथा सोई पै जानै जापै बीती होई।
तू नीरस एती कह जानै? बूझि देखिबे ओई॥
बड़ो दूत तू, बड़े ठौर को, कहिए बुद्धि बड़ोई।
सूरदास पूरीषहि[३] षटपद! कहत फिरत है सोई॥१६९॥


सुनियत ज्ञानकथा अलि गात।

जिहि मुख सुधा बेनुरवपूरित हरि प्रति छनहिं सुनात॥
जहँ लीलारस सखी-समाजहिं कहत कहत दिन जात।
बिधिना फेरि दियो सब देखत, तहँ षटपद समुझात[४]
बिद्यमान रसरास लड़ैते कत मन इत अरुझात?
रूपरहित कछु बकत बदन ते मति कोउ ठग भुरवात[५]
साधुबाद स्रुतिसार जानिकै उचित न मन बिसरात।
नँदनंदन कर-कमलन को छबि मुख उर पर परसात॥
एक एक ते सबै सयानी ब्रजसुँदरि न सकात[६]
सूर स्याम-रससिंधुगामिनी नहिं वह दसा हिरात॥१७०॥


ऊधो! इतनी कहियो जाय।

अति कृसगात भई हैं तुम बिनु बहुत दुखारी गाय॥


  1. गोई राखहु=छिपा रखो।
  2. चापे=दबाए हुए।
  3. पूरीष=पुरीष, मल।
  4. समुझात=समझाता है।
  5. भुरवात=भुलाता है।
  6. सकात=डरती हैं।