जल समूह बरसत अँखियन तें, हूंकत[१] लीने नाँव।
जहाँ जहाँ गोदोहन करते ढूँढ़त सोइ सोई ठाँव॥
परति पछार खाय तेहि तेहि थल अति व्याकुल ह्वै दीन।
मानहुँ सूर काढ़ि डारे हैं बारि मध्य तें मीन॥१७१॥
सिंधी, भस्म, अधारी, मुद्रा लै ब्रजनाथ पठाए॥
जौपै जोग लिख्यो गोपिन को, कस रसरास खिलाए?
तबहिं ज्ञान काहे न उपदेस्यो, अधर-सुधारस प्याए॥
मुरली सब्द सुनत बन गवनति सुत पति गृह बिसराए।
सूरदास सँग छाँड़ि स्याम को मनहिं रहे पछिताए॥१७२॥
जो कछु विधना रची सो भइए आन दोष न लगैए॥
कहिए कहा जु कहत बनाई सोच हृदय पछितैए।
कुब्जा बर पावै मोहन सो, हमहीं जोग बतैए॥
आज्ञा होय सोई तुम कहिबो, बिनती यहै सुनैए।
सूरदास प्रभु-कृपा जानि जो दरसन सुधा पिबैए॥१७३॥
जौ लगि नाहिं गोपालहिं देखति बिरह दहति मेरी छाती॥
निमिष एक मोहिं बिसरत नाहिंन सरद-समय की राती।
मन तौ तबही तें हरि लीन्हों जब भयो मदन बराती॥
पीर पराई कह तुम जानौ तुम तो स्याम-सँघाती।
सूरदास स्वामी सों तुम पुनि कहियो ठकुरसुहाती[२]॥१७४॥