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भ्रमरगीत-सार
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ऊधौ! बिरहौ प्रेमु करै।[१]

ज्यों बिनु पुट पट गहै न रंगहिं[२], पुट गहे रसहि परै॥
जौ आँवौ[३] घट दहत अनल तनु तौ पुनि अमिय भरै।
जौ[४] धरि बीज देह अंकुर चिरि तौ सत फरनि फरै॥
जौ सर सहत सुभट संमुख रन तौ रबिरथहि सरै।
सूर गोपाल प्रेमपथ-जल तें कोउ न दुखहिं डरै॥१७५॥


ऊधो! इतनी जाय कहो।

सब बल्लभी कहति हरि सों ये दिन मधुपुरी रहो॥
आज काल तुमहूँ देखत हौ तपत तरनि[५] सम चंद।
सुंदरस्याम परम कोमल तनु क्यों सहि हैं नँदनंद॥
मधुर मोर पिक परुष[६] प्रबल अति बन उपबन चढ़ि बोलत।
सिंह बृकन सम गाय बच्छ ब्रज बीथिन बीथिन डोलत॥
आसन असन, बसन विष अहि सम भूषन भवन भँडार।
जित तित फिरत दुसह द्रुम द्रुम प्रति धनुष लए सत मार[७]
तुम तौ परम साधु कोमलमन जानत हौ सब रीति।
सूर स्याम को क्यों बोलैं[८] ब्रज बिन टारे यह ईति[९]॥१७६॥


राग मलार
जौ पै ऊधो! हिरदय माँझ हरी।

तौ पै इती अवज्ञा उनपै कैसे सही परी?


  1. बिरहौ प्रेमु करै=विरह से भी प्रेम होता या बढ़ता है।
  2. ज्यों
    बिनु पुट...रंगहि=जैसे बिना पुट दिए कपड़े पर रंग नहीं चढ़ता।
  3. आँवा=आवाँ जिसमें मिट्टी के बरतन पकते हैं।
  4. जौ धरि बीज...फरै=जब बीज चिरकर देह में अंकुर धारण करता है तब सैंकड़ों
    प्रकार के फल फलता है।
  5. तरनि=सूर्य।
  6. परुष=कठोर, कड़े।
  7. मार=कामदेव।
  8. बोलैं=बुलावें।
  9. ईति=बाधा, उपद्रव।