घोष बसत की चूक हमारी कछू न जिय गहिबी।
परम दीन जदुनाथ जानिकै गुन बिचारि सहिबी॥
एकहि बार दयाल दरस दै बिरह-रासि दहिबी।
सूरदास प्रभु बहुत कहा कहौं बचन-लाज बहिबी॥१८९॥
उधो! नँदनंदन सों इतनी कहियो।
जद्यपि ब्रज अनाथ करि छाँड़्यो तदपि बार इक चित करि रहियो॥
तिनकातोरे[१] करौ जनि हमसों एक वास की लज्जा गहियो।
गुन-औगुनन रोष नहिं कीजत दासनिदासि की इतनी सहियो॥
तुम बिन स्याम कहा हम करिहैं यह अवलंब न सपने लहियो।
सूरदास प्रभु यह कहि पठई कहाँ जोग कहँ पीवन दहियो॥१९०॥
ऊधो! हरि करि पठवत जेती।
जौ मन हाथ हमारे होतो तौ कत सहती एती?
हृदय कठोर कुलिस हू तें अति तामें चेत अचेती।
तब उर बिच अंचल नहिं सहती, अब जमुना की रेती॥
सूरदास प्रभु तुम्हरे मिलन को, सरन देहु अब सेंती[२]।
बिन देखे मोहिं कल न परत है जाको स्रुति गावत है नेती॥१९१॥
ऊधो! यह हरि कहा कर्यौ?
राजकाज चित दियो साँवरे, गोकुल क्यों बिसर्यौ?
जौ लौं घोष रहे तौ लों हम सँतत सेवा कीनी।
बारक कबहुँ उलूखल परसे, सोई मानि जिय लीनी॥