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भ्रमरगीत-सार
 

साँची बात छाँड़ि अब झूठी कहौ कौन बिधि सुनि हैं?
सूरदास मुक्ताफलभोगी हंस बह्नि[१] क्यों चुनिहैं?॥२०६॥


राग बिलावल
ऊधो! तुम कहियो हरि सों जाय हमारे जिय को दरद।

दिन नहिं चैन, रैन नहिं सोवत, पावक भई जुन्हैया सरद॥
जब ते अक्रूर लै गए मधुपुरी, भई बिरह तन बाय[२] छरद[३]
कीन्हीं प्रबल जगी अति, ऊधो! सोचन भइ जस पीरी हरद[४]
सखा प्रवीन निरंतर हौ तुम ताते कहियत खोलि परद[५]
काथ रूप दरसन बिन हरि के सूर मूरि नहिं हियो सुरद[६]॥२०७॥


राग गौरी
ऊधो! क्यों आए ब्रज धावते?

सहायक, सखा राजपदवी मिलि दिन दस कछुक कमावते॥
कह्यो जु धर्म कृपा करि कानन सो उत बसिकै गावते।
गुरू निवर्त्ति देखि आँखिन जे स्रोता सकल अघावते।
इत कोउ कछू न जानत हरि बिन, तुम कत जुगुति बनावते?
जो कछु कहत सबन सों तुम सो अनुभव कै सुख पावते॥
मनमोहन बिन देखे कैसे उर सों औरहिं चाहते?
सूरदास प्रभु दरसन बिनु वह बार बार पछितावते॥२०८॥


राग देसाख
ऊधो! यहै प्रकृति परि आई तेरे।

जो कोउ कोटि करै कैसे हूँ फिरत नहीं मन फेरे॥
जा दिन तें जसुदागृह आए मोहन जादवराई।


  1. बह्नि=आग।
  2. बाय=बाई।
  3. छरद=छर्दि, वमन।
  4. हरद=हलदी।
  5. परद=परदा।
  6. सुरद=सुहृद।