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भ्रमरगीत-सार
 

चित चुभि रही मोहनी मूरति, चपल दृगन की हेरनि।
तन मन लियो चुराय हमारो वा मुरली की टेरनि॥
बिसरति नाहिं सुभग तन-सोभा पीताम्बर की फेरनि।
कहत न बनै काँध लकुटी धरि छबि बन गायन घेरनि॥
तुम प्रबीन, हम बिरहि, बतावत आँखि मूँदि भटभेरनि[१]
जिहि उर बसत स्यामघन सो क्यों परै मुक्ति के झेरनि[२]
तुम हमको कहँ लाए, ऊधो! जोग-दुखन के ढेरनि।
सूर रसिक बिन क्यों जीवत हैं निर्गुन कठिन करेरनि?॥२१२॥


राग सारंग
ऊधो! स्यामहिं तुम लै आओ।

ब्रजजन-चातक प्यास मरत हैं, स्वातिबूँद बरसाओ॥
घोष-सरोज भए हैं संपुट, दिनमनि ह्वै बिगसाओ।
ह्याँ तें जाव बिलम्ब करौ जनि, हमरी दसा सुनाओ॥
जौ ऊधो हरि यहाँ न आवैं, हमको तहाँ बुलाओ।
सूरदास प्रभु वेगि मिलाए संतन में जस पाओ॥२१३॥


ऊधोजू! जोग तबहिं हम जान्यो।
जा दिन तें सुफलकसुत के संग रथ ब्रजनाथ पलान्यो॥
जा दिन तैं सब छोह-मोह मिटि सुत-पति-हेत भुलान्यो।
तजि माया संसारसार की ब्रजबनितन ब्रत ठान्यो॥
नयन मुँदे, मुख रहे मौन धरि, तन तपि तेज सुखान्यो।
नंदनँदन-मुख मुरलीधारी, यहै रूप उर आन्यो॥
सोउ सँजोग जिहि भूलैं हम कहि तुमहूँ जोग बखान्यो।
ब्रह्मा पचि पचि मुए प्रान तजि तऊ न तिहि पहिंचान्यो॥


  1. भटभेर=मुठभेड़, धक्कमधुक्का।
  2. झेर=झंझट।

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