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भ्रमरगीत-सार
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कहौ सु जोग कहा लै कीजै? निर्गुन परत न जान्यो।
सूर वहै निज रूप स्याम को उर माहिं समान्यो॥२१४॥


ऊधो! वै सुख अबै कहाँ?
छन छन नयनन निरखति जो मुख, फिरि मन जात तहाँ॥
मुख मुरली, सिर मोरपखौआ उर घुँघुचिन को हारु।
आगे धेनु रेतु तन-मण्डित तिरछी चितवनि चारु॥
राति-द्यौस तब संग आपने, खेलत, बोलत, खात।
सूरदास यह प्रभुता चितवत कहि न सकति वह बात॥२१५॥


कहि, ऊधो! हरि गए तजि मथुरा कौन बड़ाई पाई।
भुवन चतुर्दस की बिभूति वह, नृप की जूठि पराई॥
जो यह काज करै ताको सेवक स्रुति पढ़ै बताई।
सेवत सेवत जन्म घटावत करत फिरत निठुराई॥
तुम तौ परम साधु अन्तरहित जनि कछु कहौ बनाई।
सूर स्याम मन कहा बिचार्‌यो, कौन ठगौरी लाई?॥२१६॥


राग धनाश्री

ऊधो! जाय बहुरि सुनि आवहु कहा कह्यो है नंदकुमार।
यह न होय उपदेस स्याम को कहत लगावन छार॥
निर्गुन-ज्योति कहा उन पाई सिखवत बारम्बार।
काल्हिहि करत हुते हमरे अँग अपने हाथ सिंगार॥
ब्याकुल भए गोपालहि बिछुरे गयो गुनज्ञान सँभार।
तातें ज्यों भावै त्यों बकत हौ, नाही दोष तुम्हार॥
बिरह सहन को हम सिरजी हैं, पाहन हृदय हमार।
सूरदास अन्तरगति मोहन जीवन-प्रान-अधार॥२१७॥