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भ्रमरगीत-सार
 


राग बिलावल
ऊधो! कह मत दीन्हो हमहिं गोपाल?

आवहु री सखि! सब मिलि सोचैं ज्यों पावैं नँदलाल॥
घर बाहर तें बोलि लेहु सब जावदेक ब्रजबाल।
कमलासन बैठहु री माई! मूँदहु नयन बिसाल॥
षट्पद कही सोऊ करि देखी, हाथ कछू नहिं आई।
सुन्दरस्याम कमलदललोचन नेकु न देत दिखाई॥
फिरि भईं मगन बिरहसागर में काहुहि सुधि न रही।
पूरन प्रेम देखि गोपिन को मधुकर मौन गही॥
कहुं धुनि सुनि स्रवननि चातक की प्रान पलटि तब आए।
सूर सु अबकै टेरि पपीहै बिरहिन मृतक जिवाए॥२१८॥


उधो! ते कि चतुर पद पावत?

जे नहिं जानैं पीर पराई हैं सर्वज्ञ कहावत॥
जो पै मीन नीर तें बिछुरै को करि जतन जियावत?
प्यासे प्रान जात हैं जल बिनु सुधासमुद्र बतावत॥
हम बिरहिनी स्यामसुन्दर की तुम निर्गुनहिं जनावत।
ये दृग-मधुप सुमन सब परिहरि कमलबदन-रस भावत॥
कहि पठवत संदेसनि मधुकर! कत बकवाद बढ़ावत?
करो न कुटिल निठुर चित-अन्तर सूरदास कवि गावत॥२१९॥


राग कल्याण
ऊधो! भली करी अब आए।

विधि-कुलाल कीने काँचे घट ते तुम आनि पकाए॥
रंग दियो हो कान्ह साँवरे, अँग अँग चित्र बनाए।
गलन न पाए नयन-नीर तें अवधि अटा जो छाए॥