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भ्रमरगीत-सार
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ब्रज करि अँवाँ, जोग करि ईंधन सुरति-अगिनि सुलगाए।
फूँक उसास, बिरह परजारनि, दरसन-आस फिराए॥
भए सँपूरन भरे प्रेम-जल, छुवन न काहू पाए।
राजकाज तें गए सूर सुनि, नंदनंदन कर लाए॥२२०॥


राग मलार
ऊधो! कुलिस भई यह छाती।

मेरो मन रसिक लग्यो नँदलालहि, झखत रहत दिनराती॥
तजि ब्रजलोक, पिता अरु जननी, कंठ लाय गए काती।
ऐसे निठुर भए हरि हमको कबहुँ न पठई पाती॥
पिय पिय कहत रहत जिय मेरो ह्वै चातक की जाती।
सूरदास प्रभु प्रानहिं राखहु ह्वै कै बूँद-सवाती॥२२१॥


राग मारू
ऊधो! कहु मधुबन की रीति।

राजा ह्वै ब्रजनाथ तिहारे कहा चलावत नीति?
निसि-लौं करत दाह दिनकर ज्यों हुतो सदा ससि सीति।
पुरवा पवन कह्यो नहिं मानत गए सहज बपु जीति॥
कुब्जा-काज कंस को मार्‌यो, भई निरंतर प्रीति।
सूर बिरह ब्रज भलो न लागत जहाँ ब्याह तहँ गीति॥२२२॥


ऊधो! काल-चाल चौरासी।

मन हरि मदनगोपाल हमारो बोलत बोल उदासी॥
एते पै हम जोग करहिं क्यों लै अबिगत अबिनासी।
गुप्त गोपाल करी बनलीला हम लूटी सुखरासी॥
लोचन उमगि चलत हरि के हित बिन देखे बरिसा सी।
रसना सूर स्याम के रस बिनु चातकहू तें प्यासी॥२२३॥