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भ्रमरगीत-सार
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जोग-जुगुति की नीति अगम हम ब्रजवासिनि कह जाने?
सिखवहु जाय जहाँ नटनागर रहत प्रेम लपटाने॥
दासी घेरि रहे हरि, तुम ह्याँ गढ़ि गढ़ि कहत बनाई।
निपट निलज्ज अजहुँ न चलत उठि, कहत सूर समुझाई॥२२७॥


ऊधो! राखति हौं पति तेरी।

ह्याँ तें जाहु, दुर आगे तें देखत आँखि बरति हैं मेरी॥
तुम जो कहत गोपाल सत्य है, देखहु आय न कुब्जा घेरी।
ते तौ तैसेई दोउ बने हैं, वै अहीर वह कँस की चेरी॥
तुम सारिखे बसीठ पठाए, कहा कहौं उनकी मति फेरी।
सूरदास प्रभु तुम्हरे मिलन को ग्वालिनि कै सँग जोवति हेरी॥२२८॥


राग नट
ऊधो! बेदबचन परमान।

कमल मुख पर नयन-खंजन देखिहैं क्यों आन?
श्री-निकेत-समेत सब गुन, सकल-रूप-निधान।
अधर-सुधा पिवाय बिछुरे पठै दीनो ज्ञान॥
दूरि नहीं दयाल सब घट कहत एक समान।
निकसि क्यों न गोपाल बोधत दुखिन के दुख जान?
रूप-रेख न देखिए, बिन स्वाद सब्द भुलान।
ईखदंडहि डारि हरिगुन, गहत पानि बिषान॥
बीतराग सुजान जोगिन, भक्तजनन निवास।
निगम-बानी मेटिकै क्यों कहै सूरदास[१]?॥२२९॥


राग सारंग
ऊधो! अब चित भए कठोर।

पूरब प्रीति बिसारी गिरिधर नवतन राचे और॥


  1. यहाँ टंकण की अशुद्धि से सूरजदास छप गया है।