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पृष्ठ:भ्रमरगीत-सार.djvu/१७०

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भ्रमरगीत-सार
 

ससि-दरसन बिनु मलिन कुमोदिनि ज्यों रवि बिनु जल जात।
त्यों हम कमलनयन बिन देखे तलफि तलफि मुरझात॥
घँसि चँदन घनसार सजे तन ते क्यों भस्म भरात?
रहे स्रवन मुरलीधर सों रत, सिंगी सुनत डरात॥
अबलनि आनि जोग उपदेसत नाहिंन नेकु लजात।
जिन पायो हरि परस सुधारस ते कैसे कटु खात?
अवधि-आस गनि गनि जीवति हैं, अब नहिं प्रान खटात[]
सूर स्याम हम निपट बिसारी ज्यों तरु जीरन पात॥२३६॥


राग कान्हरो
ऊधो! अँखियाँ अति अनुरागी।

इकटक मग जोवति अरु रोवति, भूलेहु पलक न लागी॥
बिन पावस पावस ऋतु आई देखत हौ बिदमान।
अब धौं कहा कियो चाहत हौ? छाँड़हु नीरस ज्ञान॥
सुनु प्रिय सखा स्यामसुन्दर के जानत सकल सुभाव।
जैसे मिलैं सूर प्रभु हमको सो कछु करहु उपाव॥२३७॥


ऊधो! कहत कही नहिं जाय।

मदनगोपाल लाल के बिछुरत प्रान रहे मुरझाय॥
अब स्यंदन चढ़ि गवन कियो इत फिरि चितयो गोपाल।
तबहीं परम कृतज्ञ सबै उठि सँग लगीं ब्रजबाल॥
अब यह औरै सृष्टि बिरह की बकति बाय-बौरानो।
तिनसों कहा देत फिरि उत्तर? तुम हौ पूरन ज्ञानी॥
अब सो मान घटै, का कीजै? ज्यों उपजै परतीति।
सूरदास कछु बरनि न आवै कठिन बिरह की रीति॥२३८॥


  1. खटात=ठहरता है।