पृष्ठ:भ्रमरगीत-सार.djvu/१७१

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राग बिहागरो
ऊधो! यह मन अधिक कठोर।

निकसि न गयो कुँभ काँचे ज्यों बिछुरत नँदकिसोर॥
हम कछु प्रीति-रीति नहिं जानी तब ब्रजनाथ तजी।
हमरे प्रेम न उनको, ऊधो! सब रस-रीति लजी॥
हमतें भली जलचरी बपुरी अपनो नेम निबाहैं।
जल तें बिछुरत ही तन त्यागैं जल ही जल को चाहैं।
अचरज एक भयो सुनो, ऊधो! जल बिनु मीन जियो।
सूरदास प्रभु आवन कहि गए मन बिस्वास कियो॥२३९॥


उधो! होत कहा समुझाए?

चित चुभि रही साँवरी मूरति, जोग कहा तुम लाए?
पा लागौं कहियो हरिजू सों दरस देहु इक बेर।
सूरदास प्रभु सों बिनती करि यहै सुनैयो टेर॥२४०॥


ऊधो! हमैं जोग नहिं भावै।

चित में बसत स्यामघन सुन्दर, सो कैसे बिसरावै?
तुम जो कही सत्य सब बातें, हमरे लेखे धूरि।
या घट-भीतर सगुन निरँतर रहे स्याम भरि पूरि॥
पा लागौं कहियो मोहन सों जोग कूबरी दीजै।
सूरदास प्रभु-रूप निहारैं हमरे संमुख कीजै॥२४१॥


ऊधो! हम न जोगपद साधे।

सुन्दरस्याम सलोनो गिरिधर नँदनँदन आराधे॥
जा तन रचि रचि भूषन पहिरे भाँति भाँति के साज।
ता तन को कहै भस्म चढ़ावन, आवत नाहिंन लाज॥
घट-भीतर नित बसत साँवरो मोरमुकुट सिर धारे।
सूरदास चित तिन सों लाग्यो, जोगहिं कौन सँभारे?॥२४२॥