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भ्रमरगीत-सार
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परम साधु सखा सुजन जदुकुल के मानि।
कहौ बात प्रात एक साँची जिय जानि॥
सरद-बारिज सरिस दृग भौंह काम-कमान।
क्यों जीवहिं बेधे उर लगे बिषम बान?
मोहन मथुरा पै बसैं, ब्रज पठयो जोगसँदेस।
क्यों न काँपी मेदिनी कहत जुवतिन ऊपदेस?
तुम सयाने स्याम के देखहु जिय बिचारि।
प्रीतम पति नृपति भए औ गहे वर नारि॥
कोमल कर मधुर मुरलि अधर धरे तान।
पसरि सुधा पूरि रही कहा सुनै कान?
मृगी मृगज[१]-लोचनी भए उभय एक प्रकार।
नाद नयनबिष-तते[२] न जान्यो मारनहार॥
गोधन तजि गवन कियो लियो बिरद गोपाल।
नीके कै कहिबी[३], यह भली निगम-चाल॥२४४॥


मधुकर! जानत है सब कोऊ।
जैसे तुम औ मीत तुम्हारे, गुननि निपुन हौ दौऊ॥
पाके चोर, हृदय के कपटी, तुम कारे औ वोऊ।
सरबसु हरत, करत अपनो सुख, कैसेहू किन होऊ॥
परम कृपन थोरे धन जीवन उबरत नाहिंन सोऊ।
सूर सनेह करै जो तुमसों सो करै आप-बिगोऊ[४]॥२४५॥


मधुकर! कहियत बहुत सयाने।
तुम्हरी मति कापै बनि आवै हमरे काज अजाने।


  1. मृगज=हिरन का, बच्चा।
  2. तते=तपे हुए।
  3. कहिबी=कहना।
  4. बिगोऊ=नाश, खराबी।