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भ्रमरगीत-सार
 

सूरदास प्रभुता का कहिए प्रीति भली पसरी!
राजमान सुख रहै कोटि पै घोष न एक घरी॥२५१॥


राग आसावरी

मधुकर! बादि[१] बचन कत बोलत?
तनक न तोहिं पत्याऊँ, कपटी अंतर-कपट न खोलत॥
तू अति चपल अलप[२] को सगी बिकल चहूँ दिसि डोलत।
मानिक काँच, कपूर कटु खली, एक संग क्यों तोलत?
सूरदास यह रटत बियोगिनि दुसह दाह क्यों झोलत[३]
अमृतरूप आनन्द अँगनिधि अनमिल अगम अमोलत॥२५२॥


राग केदारो

मधुकर! देखि स्याम तन तेरो।
हरि-मुख की सुनि मीठी बातैं डरपत है मन मेरो॥
कहत हौं चरन छुवन रसलंपट, बरजत हौ बेकाज।
परसत गात लगावत कुंकुम, इतनी में कछु लाज?
बुधि बिबेक अरु बचन-चातुरी ते सब चितै चुराए।
सो उनको कहो कहा बिसार्‌यो, लाज छाँड़ि ब्रज आए॥
अब लौं कौन हेतु गावत है हम आगे यह गीत।
सूर इते सों गारि[४] कहा है जौ पै त्रिगुन अतीत?॥२५३॥


मधुकर काके मीत भए?
दिवस चारि की प्रीति-सगाई सो लै अनत गए॥
डहकत फिरत आपने स्वारथ पाखँड और ठए।
चाँड़ै सरे[५] चिन्हारी मेटी, करत हैं प्रीति नए॥


  1. बादि=व्यर्थ।
  2. अलप=ओछा।
  3. झोलत=जलाता है।
  4. गारि=बुराई।
  5. चाँड़ै सरे=मन की हौस निकल जाने पर, अपनी इच्छा पूरी हो जाने पर।