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भ्रमरगीत-सार
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कौन तुम सों कहैं, मधुकर! कहन जोगै नाहिं।
प्रीति की कछु रीति न्यारी जानिहौ मन माहिं।
नयन नींद न परै निसिदिन बिरह बाढ्यो देह।
कठिन निर्दय नंद के सुत जोरि तोर्‌यो नेह॥
कहा तुम सों कहैं, षटपद[१]! हृदय गुप्त कि बात।
सूर के प्रभु क्यों बनैं जो करैं अबला घात?॥२६८॥


मधुकर! यह कारे की रीति।
मन दै हरत परायो सर्बस करै कपट की प्रीति।
ज्यों षटपद अम्बुज के दल में बसत निसा रति मानी।
दिनकर उए अनत उड़ि बैठैं फिर न करत पहिचानि॥
भवन भुजंग पिटारे पाल्यो ज्यों जननी जनि तात।
कुल-करतूति जाति नहिं कबहूं सहज सो डसि भजि जात॥
कोकिल काग कुरंग स्याम की छन छन सुरति करावत।
सूरदास, प्रभु को मुख देख्यो निसदिन ही मोहिं भावत॥२६९॥


राग सोरठ

मधुप! तुम कहा यहै गुन गावहु।
यह प्रिय कथा नगर-नारिन सों कहौं जहाँ कछु पावहु।
जानत मरम नंदनंदन को, और प्रसंग चलावहु।
हम नाहीं कमलिनि-सी भोरी करि चतुरई मनावहु॥
जनि परसौं अलि! चरन हमारे बिरह-ताप उपजावहु।
हम नाहीं कुबिजा-सी भोरी, करि चातुरी दिखावहु॥
अति बिचित्र लरिका की नाईं गुरु दिखाय बहरावहु।
सूरदास प्रभु नागरमनि सों कोउ बिधि आनि मिलाबहु॥२७०॥


  1. षटपद=भौंरा।