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भ्रमरगीत-सार
 


मधुप! तुम देखियत हौ चित कारे।
कालिंदीतट पार बसत हौ, सुनियत स्याम-सखा रे!
मधुकर, चिहुर, भुजंग, कोकिला अवधिन हीं दिन टारे।
वै अपने सुख ही के राजा तजियत यह अनुहारे॥
कपटी कुटिल निठुर हरि मोहीं दुख दै दूरि सिधारे।
बारक बहुरि कबै आवैंगे नयनन साध निवारे॥
उनकी सुनै सो आप बिगोबै चित चोरत बटमारे।
सूरदास प्रभु क्यों मन सानै सेवक करत निनारे[१]॥२७६॥


मधुकर! को मधुबनहिं गयो?
काके कहे सँदेस लै आए, किन लिखि लेख दयो?
को बसुदेव-देवकीनंदन, को जदुकुलहि उजागर?
तिनसों नहिं पहिचान हमारी, फिरि लै दीजो कागर॥
गोपीनाथ, राधिकाबल्लभ, जसुमति नँद कन्हाई।
दिन प्रति दान लेत गोकुल में नूतन रीति चलाई॥
तुम तौ परम सयाने ऊधो! कहत और की औरै।
सूरदास पंथ के बहँके बोलत हौ ज्यों बौरे॥२७७॥


राग सारंग

देखियत कालिंदी अति कारी।
कहियो, पथिक! जाय हरि सों ज्यों भई बिरह-जुर[२]-जारी॥
मनो पलिका[३] पै परी धरनि धँसि तरँग तलफ तनु भारी[४]


  1. निनारे=अलग।
  2. जुर=ज्वर, ताप।
  3. पलिका=पलंग।
  4. तरँग......भारी=तरंग उठना मानों शरीर का तड़फड़ाना है।