पृष्ठ:भ्रमरगीत-सार.djvu/१८८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
१०९
भ्रमरगीत-सार
 


कोउ सखि नई चाह[१] सुनि आई।
यह ब्रजभूमि सकल सुरपति पै[२] मदन मिलिक[३] करि पाई।
घन धावन, बगपाँति पटो[४] सिर, बैरख[५] तड़ित सुहाई॥
बोलत पिक चातक ऊँचे सुर, मनो मिलि देत दुहाई।
दादुर मोर चकोर बदत सुक सुमन समीर सुहाई॥
चाहत कियो बास वृंदाबन, बिधि सों कहा बसाई?
सीवँ[६] न चापि सक्यो तब कोऊ, हुते बल कुँवर कन्हाई।
अब सुनि सूर स्याम केहरि बिनु ये करिहैं ठकुराई[७]॥२८१॥


बरु ये बदराऊ बरसन आए।
अपनी अवधि जानि, नँदनंदन! गरजि गगन घन छाए॥
सुनियत है सुरलोक बसत सखि, सेवक सदा पराए[८]
चातक-कुल की पीर जानि कै तेउ तहाँ तें धाए॥
द्रुम किए हरित, हरषि बेली मिलि, दादुर मृतक जिवाए।
छाए निबिड़ नीर तृन जहँ तहँ पँछिन हूँ प्रति भाए॥
समझति नहिं सखि! चूक आपनी बहुतै दिन हरि लाए।
सूरदास स्वामी करुनामय मधुबन बसि बिसराए॥२८२॥


परम बियोगिनि गोबिंद बिनु कैसे बितवैं दिन सावन के?
हरित भूमि, भरे सलिल सरोवर, मिटे मग मोहन आवन के॥


  1. चाह=खबर।
  2. पै=से।
  3. मिलिक=मिलकियत, जागीर।
  4. पटो=पट, पगड़ी।
  5. बैरख=पताका, झंडा।
  6. सींव=सीमा, हद। सीवँ न चापि सक्यो=हद पर पैर न रख सकता था।
  7. यह पद तुलसी की 'श्रीकृष्ण-गीतावली' में भी है।
  8. पराए=दूसरे के अर्थात् इंद्र के।