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पृष्ठ:भ्रमरगीत-सार.djvu/१९४

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भ्रमरगीत-सार
 


राग केदारो

हर को तिलक[], हरि! चित को दहत।
कहियत है उडुराज अमृतमय, तजि सुभाव मोकों बन्हि बहत॥
छपा न छीन होय, मेरी सजनी! भूमि-डसन-रिपु[] काधौं बसत।
ससि नहिं गमन करै पच्छिम दिसि, राहु ग्रसत गहि, मोकों न गहत[]
ऐसोइ ध्यान धरत तुम, दधिसुत! मुनि महेस जैसी रहनि रहत[]
सूरदास प्रभु मोहन मूरति चितै जाति पै चित न सहत[]॥२९७॥


ए सखि! आजु की रैनि को दुख कह्यो न कछु मोपै परै।
मन राखन[] को बेनु लियो कर, मृग थाके उडुपति न चरै[]
वाही प्राननाथ प्यारे बिनु सिव-रिपु[]-बान नूतन जो जरै।
अति अकुलाय बिरहिनी ब्याकुल भूमि-डसन-रिपु भख न करै॥
अति आतुर ह्वै सिंह लिख्यो कर जेहि भामिनी को करुन टरै।
सूरदास ससि को रथ चलि गयो, पाछे; तें रबि उदय करै॥२९८॥


राग मलार
देखौ माई! नयनन्ह सों घन हारे।
बिन ही ऋतु बरसत निसिबासर सदा सजल दोउ तारे॥


  1. हर को तिलक=शिव का शिरोभूषण चन्द्र।
  2. भूमि-डसन-रिपु=साँप।
  3. राहु......गहत=इसको राह पकड़ लेता जिसमें यह हमें न ग्रसता या कष्ट देता।
  4. मुनि महेस...रहत=अर्थात् अचल आसन मारकर, ध्यान लगाकर।
  5. चितै जाति...सहत=ध्यान में उनकी मूर्ति देखती हूँ, पर ब्याकुलता से देखा नहीं जाता।
  6. मन राखन को=मन बहलाने के लिए।
  7. चरै=चलता है।
  8. सिव-रिपु=कामदेव।
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