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भ्रमरगीत-सार
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आए बोलत ता बिन ऊधो 'मनि दै लेहु मह्यो'[१]
निर्गुन साँटि[२] गोबिंदहि माँगत, क्यों दुख जात सह्यो॥
जेहि आधार आजु लौं यह तनु ऐसे ही निबह्यो।
सोइ छिंड़ाय[३] लेत सुनु सूर चाहत हृदय दह्यो॥३०४॥


राग सारंग

लोग सब देत सुहाई[४] बातें।
कहतहि सुगम करत नहिं आबै, बोलि न आवत तातें॥
पहिले आगि सुनत चन्दन सी सती बहुत उमहै।
समाचार ताते अरु सीरे पाछे कौन कहै॥
कहत सबै संग्राम सुगम अति कुसुमलता करवार[५]
सूरदास सिर दिए सूरमा पाछे कौन बिचार?॥३०५॥


राग गौरी

बिछुरत श्री ब्रजराज आज सखि! नैनन की परतीति गई।
उड़ि न मिले हरि-संग बिहंगम[६] ह्वै न गए घनस्याम-मई।
यातें क्रूर कुटिल सह मेचक[७] बृथा मीन छवि छीनि लई।
रूप-रसिक लालची कहावत, सो करनी कछु तौं न भई[८]
अब काहे सोचत जल मोचत, समय गए नित सूल नई।
सूरदास याहीं ते जड़ भए जब तें पलकन दगा दई॥३०६॥


  1. मह्यो=मही, मट्ठा।
  2. (२) साँटि=साँटे में, बदले में।
  3. छिड़ाय लेत=छीन लेते हैं।
  4. सुहाई=सुहावनी, प्रिय।
  5. करवार=तलवार।
  6. बिहंगम=क्योंकि नेत्र की उपमा खंजन से देते हैं।
  7. मेचक=कालापन लिए।
  8. कछु...भई=जल से अलग होने पर मछली मर जाती है, पर आँखें बनी रहती हैं।