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पृष्ठ:भ्रमरगीत-सार.djvu/१९९

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भ्रमरगीत-सार
१२०
 


राग सारंग

हमैं नंदनँदन को गारो[]
इन्द्रकोप ब्रज बह्यो जात हो, गिरि धरि सकल उबारो॥
रामकृस्न बल बदति न काहू, निडर चरावत चारो।
सगरे बिगरे को सिर ऊपर बल को बीर[] रखबारो॥
तब तें हम न भरोसो पायो केसि तृनाब्रत मारो।
सूरदास प्रभु रङ्गभूमि में हरि जीतो, नृप हारो॥३१०॥


राग मलार

ऐसे माई पावस ऋतु प्रथम सुरति करि माधवजू आवै री।
बरन बरन अनेक जलधर अति मनोहर बेष।
यहि समय यह गगन-सोभा सबन तें सुबिसेष॥
उड़त बक, सुक-बृन्द राजत, रटत चातक मोर।
बहुत भाँति चित हित-रुचि[] बाढ़त दामिनी घनघोर[]
धरनि-तनु तृनरोम हर्षित प्रिय समागम जानि।
और द्रुम बल्ली बियोगिनी मिलीं पति पहिचानि॥
हस, पिक, सुक, सारिका अलिपुंज नाना नाद।
मुदित मंगल मेघ बरसत, गत बिहंग-बिषाद॥
कुटज, कुन्द, कदम्ब, कोबिद[], कर्निकार[], सु कंजु।
केतकी, करबीर[], चिलक[] बसन्त-सम तरु मंजु॥


  1. गारो=गौरव, गर्व।
  2. बीर=भाई।
  3. हित-रुचि=प्रेम का अभिलाष।
  4. घोर=बादल की गरज।
  5. कोबिद=कोविदार, कचनार।
  6. कर्निकार=कनियारी का पेड़।
  7. करबीर=कनेर।
  8. चिलक=चमक।