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भ्रमरगीत सार
 

सघन तरु कलिका अलंकृत, सुकृत सुमन सुबास।
निरखि नयनन्ह होत मन माधव-मिलन की आस॥
मनुज मृग पसु पच्छि परिमित[१] औ अमित जे नाम।
सुख स्वदेस बिदेस प्रीतम सकल सुमिरत धाम॥
ह्वै है न चित्त उपाय सोच न कछू परत बिचार।
नाहिं ब्रजबासी बिसारत निकट नन्दकुमार॥
सुमिरि दसा दयाल सुंदर ललित गति मृदु हास।
चारु लोल कपोल कुण्डल डोल बलित-प्रकास॥
बेनु कर कल गीत गावत गोपसिसु बहु पास।
सुदिन कब यहि आँखि देखैं बहुरि बाल-बिलास॥
बार बारहिं सुधि रहति अति बिरह व्याकुल होति।
बात-बेग[२] सो लगै जैसो दीन दीपक ज्योति॥
सुनि बिलाप कृपाल सूर दास प्रान प्रतीति।
दरस दै दुख दूरि करिहैं, सहि न सकिहैं प्रीति॥३११॥


चलहु धौं लै आवहिं गोपालै।
पायँ पकरि कै निहुरि बिनति कहि, गहि हलधर की बाहँ बिसालै॥
बारक बहुरि आनि कै देखहिं नन्द आपने बालै।
गैयन गनत गोप-गोपी-सह, सीखत बेनु रसालै॥
यद्यपि महाराज सुख-सम्पति कौन गनै मोतिन अरु लालै।
तदपि सूर आकरषि लियो मन उर घुँघचिन की मालै॥३१२॥


बलैया लैहौं, हो बीर बादर!
तुम्हरे रूप सम हमरे प्रीतम गए निकट जल-सागर॥
पा लागौं द्वारका सिधारौ बिरहिनि के दुखदागर।
ऐसो संग सूर के प्रभु को करुनाधाम उजागर॥३१३॥


  1. परिमित=पर्यत, तक।
  2. बात-बेग=हवा का झोंका।