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भ्रमरगीत-सार
 


राग मलार

बारक जाइयो मिलि माधौ।
को जानै कब छूटि जायगो स्वाँस, रहै जिय साधौ॥
पहुनेहु नंद बबा के आबहु देखि लेहुँ पल आधौ।
मिल ही में[१] बिपरीत करी बिधि, होत दरस को बाधौ॥
सो सुख सिव सनकादि न पावत जो सुख गोपिन लाधो[२]
सूरदास राधा बिलपति है हरि को रूप अगाधो॥३१५॥


निसिदिन बरसत नैन हमारे।
सदा रहति पावस ऋतु हम पै जब तें स्याम सिधारे॥
दृग अंजन लागत नहिं कबहूँ, उर-कपोल भए कारे।
कंचुकि नहिं सूखत सुनु सजनी! उर-बिच बहत पनारे॥
सूरदास प्रभु अंबु बढ्यो है, गोकुल लेहु उबारे।
कहँ लौं कहौं स्यामघन सुन्दर बिकल होत अति भारे॥३१६॥


आछे कमल कोस-रस लोभी द्वै अलि[३] सोच करे।
कनक बेलि औ नवदल के ढिग बसते उझकि[४] परे॥
कबहुँक पच्छ सकोचि मौन ह्वै अंबुप्रवाह झरे।
कबहुँक कंपित चकित निपट ह्वै लोलुपता बिसरे॥
बिधु-मंडल[५] के बीच बिराजत अंमृत अंग भरे ।
एतेउ जतन बचत नहिं तलफत बिनु मुख सुर उचरे॥


  1. मिल ही में=सब बातें बन जाने पर भी।
  2. लाधो=लब्ध किया, पाया।
  3. अलि=भौंरे अर्थात् नेत्र की पुतलियाँ।
  4. उझकि परे=उचटकर चले गए।
  5. बिधु-मंडल=चंद्रमंडल अर्थात् मुख।