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भ्रमरगीत-सार
१२८
 

दुसह दसन-दुख दलि नैनन जल परस[१] न परत सह्यो।
मानहुं स्रवत सुधा अन्तर तें, उर पर जात बह्यो॥
अब मुखससि ऐसो लागत ज्यों बिन माखनहि मह्यो।
सूर दरस हरि दान दिए बिनु[२] सुख-प्रकास निबह्यो[३]॥३२८॥


गोपालहि बालक ही तें टेव।
जानति नाहिं कौन पै सीखे चोरी के छल-छेव॥
माखन-दूध धर्‌यो जब खाते सहि रहती करि कानि।
अब क्यों सही परति, सुनि सजनी! मनमानिक की हानि॥
कहियो, मधुप! सँदेस स्याम सों राजनीति समुझाय।
अजहूँ तजत नाहिं वा लोभै, जुगुत[४] नहीं जदुराय॥
बुधि बिबेक सरबस या ब्रज को लै जो रहे मुसकाय।
सूरदास प्रभु के गुन अबगुन कहिए कासों जाय॥३२९॥


जदपि मैं बहुतै जतन करे।
तदपि, मधुप! हरि-प्रिया जानि कै काहु न प्रान हरे॥
सौरभ-युत सुमनन लै निज कर संतत सेज धरे।
सनमुख होति सरद-ससि, सजनी! तऊ न अङ्ग जरे[५]
चातक मोर कोकिला मधुकर सुर सुनि स्रवन भरे।
सादर ह्वै निरखति रतिपति को नैक न पलक परे॥
निसिदिन रटति नंदनँदन, या उर तें छिन न टरे।
अति आतुर चतुरंग चमू सजि अनँग न सर सँचरे[६]


  1. परस=स्पर्श।
  2. दरस...बिनु=दान पुण्य से चंद्रमा का छुटकारा होता है।
  3. निबह्यो=नष्ट हो गया है।
  4. जुगुत=युक्त, ठीक, उचित।
  5. इसी प्रकार की उक्ति भवभूति की है, 'मालती-माधव'
    में।
  6. सँचरे=चलाए।